और ना जाने क्यूँ सोचता है ,
कहता है
रास्ते तो तू ढूंढ ही लेगा ,
मैंने कहा
अब तो मंजिल क्या है ,
यह भी नहीं मालूम .
रास्ते कहाँ से लाऊं ?
फिर कहता है
तोड़ दो उन् दीवारों को
आजादी तो बस तुम्हारी ही है .
तो मैंने पूछा ,
जो दीवारें तुमने बना रखी हैं
उनका क्या करूँ ?
ना जाने यह क्या चाहता है
और ना जाने क्यूँ चाहता है ,
देखता है खुशियों को
पर खुद खुश नहीं रहता ,
चाहता है आसमान को छूना
लेकिन ऊँचाइयों से डरता है ,
डूबा रहता है ख्यालों में
किन्तु जीना चाहता है यथार्थ में ,
और यूँ तो यह मेरा ही है
पर मेरी सुनता कब है ?
यह मेरा मन
ना जाने क्या - क्या सोचता है .